किसी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है तथा उनका कार्यकाल क्या है?
किसी राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा किया जाता है। इनकी नियुक्ति पाँच वर्षों के लिए किया जाता है लेकिन विशेष अवस्था में त्याग पत्र का भी प्रावधान है।
संबंधित संवैधानिक प्रावधान
- भारतीय संविधान का भाग VI देश के संघीय ढाँचे के महत्त्वपूर्ण हिस्से यानी राज्यों से संबंधित है। संविधान के अनुच्छेद 152 से 237 तक राज्यों से संबंधित विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख किया गया है।
- अनुच्छेद 153 के मुताबिक, देश में प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। साथ ही एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 155 के अनुसार, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- संविधान के अनुसार, राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख और प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। वह भारतीय राजनीति की संघीय प्रणाली का हिस्सा है तथा संघ एवं राज्य सरकारों के बीच एक पुल का काम करता है।
- संविधान के अनुच्छेद 157 और अनुच्छेद 158 में राज्यपाल के पद हेतु आवश्यक पात्रता निर्धारित की गईं है जो निम्नलिखित हैं:
- वह भारतीय नागरिक हो।
- उसकी उम्र कम-से-कम 35 वर्ष हो।
- वह न तो संसद के किसी सदन का सदस्य हो और न ही राज्य विधायिका का।
- वह किसी लाभ के पद पर न हो।
- ध्यातव्य है कि संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात् वह स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद की सलाह मानने हेतु बाध्य नहीं है। राज्यपाल को निम्नलिखित विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त होती हैं:
- यदि किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के चयन में अपने विवेक का उपयोग कर सकता है।
- किसी दल को बहुमत सिद्ध करने हेतु कितना समय दिया जाना चाहिये यह भी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है।
- आपातकाल के दौरान वह मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिये बाध्य नहीं होता। ऐसे समय में वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है और राज्य का वास्तविक शासक बन जाता है।
राज्यपाल की नियुक्ति
- गौरतलब है कि राज्यपाल का चुनाव न तो सीधे आम लोगों द्वारा किया जाता है और न ही कोई विशेष रूप से गठित निर्वाचक मंडल इसका चुनाव करता है।
- इसके विपरीत राज्यों के गवर्नर की नियुक्ति प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है जिसके कारण उसे केंद्र सरकार का प्रतिनिधि भी कहा जाता है।
- संविधान निर्माण के समय मसौदा समिति ने यह निर्णय संविधान सभा पर छोड़ दिया था कि देश में राज्यपालों के लिये चुनाव किये जाने चाहिये या फिर उनका मानांकन किया जाना चाहिये।
- इस विषय पर संविधान सभा का मानना था कि राज्यपालों के चयन के लिये चुनाव किया जाना चाहिये, परंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री की शक्तियों के बीच टकराव की आशंका ने राज्य में राज्यपाल के नामांकन की प्रणाली को जन्म दिया।
राज्यपाल की भूमिका
- प्रत्येक राज्य का राज्यपाल वहाँ लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 162 तक राज्यपाल की भूमिका का वर्णन किया गया है।
- राज्य के राज्यपाल की भूमिका कमोबेश देश के राष्ट्रपति के सामान ही होती है। राज्यपाल सामान्यतः राज्यों के लिये राष्ट्रपति जैसी भूमिका का निर्वाह करता है।
- राज्यपाल के कार्यों को मुख्यतः 4 भागों (1) कार्यकारी (2) विधायी (3) वित्तीय (4) न्यायिक में विभाजित किया गया है।
कार्यकारी
- राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के नाते राज्यपाल को कई महत्त्वपूर्ण कार्य करने होते हैं, इसमें बहुमत प्राप्त दल के नेता को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त करना तथा राज्य मंत्रिमंडल के गठन में मुख्यमंत्री की सहायता करना आदि शामिल हैं। साथ ही राज्य के महाधिवक्ता तथा राज्य लोक आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति का कार्य भी राज्यपाल द्वारा ही किया जाता है।
विधायी
- राज्यपाल के पास राज्य की विधानसभा की बैठक को किसी भी आपात स्थिति में बुलाने और किसी भी समय स्थगित करने का अधिकार होता है। साथ ही उसे दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने का भी अधिकार है। उसे राज्य विधानसभा में पारित किये जाने वाले किसी भी विधेयक को रद्द करने, समीक्षा के लिये वापस भेजने और राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार है। इसका अर्थ है कि राज्य विधानसभा में कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना पारित नहीं किया जा सकता। राज्य में आपातकाल के दौरान किसी भी प्रकार का अध्यादेश जारी करने का कार्य भी राज्यपाल का होता है।
वित्तीय
- राज्यपाल का कार्य यह सुनिश्चित करना भी होता है कि वार्षिक वित्तीय विवरण (राज्य-बजट) को राज्य विधानमंडल के सामने रखा जाए। साथ ही किसी भी धन विधेयक को विधानसभा में उसकी अनुमति के बाद ही प्रस्तुत किया जा सकता है। पंचायतों एवं नगरपालिका की वित्तीय स्थिति की हर पाँच वर्षों बाद समीक्षा करने के लिये राज्यपाल राज्य वित्त आयोग का भी गठन करता है।
न्यायिक
- राज्यपाल के न्यायिक कार्यों में राज्य के उच्च न्यायालय के साथ विचार कर ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और पदोन्नति संबंधी निर्णय लेना शामिल है। वह राज्य न्यायिक आयोग से जुड़े लोगों की नियुक्ति भी करता है।
महत्त्वपूर्ण निर्णय जिन्होंने राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को आकार दिया
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार
- सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे फैसले हैं, जिनका समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया ऐतिहासिक फैसला जो राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करता है।
- गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले में फँसने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था।
- सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।
- इस फैसले में न्यायालय ने कहा था कि "किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।"
- रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार
- वर्ष 2006 में दिये गए इस निर्णय में पाँच सदस्यों वाली न्यायपीठ ने स्पष्ट किया था कि यदि विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं है, चाहे चुनाव पूर्व उन दलों में गठबंधन हो या न हो।
- नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष
- वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये और यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।
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