सामाजिक न्याय क्या है?

 सामाजिक न्याय क्या है?

Ans. सामाजिक न्याय एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की उपलब्धता समाज के प्रत्येक वर्ग को समान रूप से कराई जा सके। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा लायी गयी विभिन्न योजनाओं का लाभ राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को समान रूप से मिले। उपर्युक्त स्थिति स्थापित करने के लिए सरकार आवश्यकतानुसार विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा जागरूकता एवं अवसर प्रदान करती है।


सामाजिक न्याय का सिद्धांत (Principle of Social Justice)

'सामाजिक न्याय' शब्द का प्रयोग पहली बार 1840 में इटली के एक पादरी लुइगी तपारेली द' एजेंग्लिओ (Luigi Taparelli d'Azeglio) द्वारा किया गया था, जबकि इस शब्द को पहचान 1848 में एंटोनियो रोस्मिनी सरबाली (Antonio Rosmini Serbali) ने दिलाई। आधुनिक काल में जॉन रॉल्स और अमर्त्य सेन जैसे विचारकों ने 'सामाजिक न्याय' को एक प्रमुख अवधारणा बना दिया है, साथ ही वर्तमान लोक-कल्याणकारी राज्य का मूल लक्ष्य भी 'सामाजिक न्याय' की स्थापना करना ही है। सामाजिक न्याय से आशय एक ऐसे न्यायपूर्ण समाज की स्थापना से है जिसमें सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ न्यूनतम हों, समाज 'समावेशी' हो और संसाधनों का वितरण सर्वमान्य स्वीकृति के आधार पर हो।

सामाजिक न्याय का उद्देश्य राज्य के सभी नागरिकों को सामाजिक समानता उपलब्ध कराना है। समाज के प्रत्येक वर्ग के कल्याण के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आजादी आवश्यक हैं। भारत एक कल्याणकारी राज्य है और यहाँ सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य लैंगिक, जातिगत, नस्लीय एवं आर्थिक भेदभाव के बिना सभी नागरिकों की मूलभूत अधिकारों तक समान पहुँच सुनिश्चित करना है। मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच प्राथमिकता को लेकर विवाद रहा है। 20वीं सदी में 'सामाजिक न्याय' की अवधारणा के तीव्र विकास के साथ ही उपरोक्त दोनों मूल्यों में व्याप्त भिन्नता और भी अधिक स्पष्ट हुई है। अतः एक ओर, जहाँ पश्चिमी पूंजीवादी देशों ने अपनी संवैधानिक योजना में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रमुखता दी, वहीं दूसरी ओर, समाजवादी देशों ने सामाजिक न्याय को सर्वप्रमुख माना। जबकि, समकालीन राजनीतिक व्यवस्थाओं ने प्रमुखतया उदारवादी लोकतंत्र को अपनाते हुए 'सामाजिक न्याय व व्यक्तिगत स्वतंत्रता' के मध्य बेहतरीन सामंजस्य स्थापित किया है। भारतीय राजव्यवस्था में उदारवादी राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ समाजवादी आदर्शों को भी अपनाया गया है और इसे ध्यान में रखते हुए ही संविधान की प्रस्तावना में 'सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय' का उल्लेख किया गया है। भारत के संविधान निर्माताओं ने 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' और 'सामाजिक न्याय' में संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को और भाग IV में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किया है।

'सामाजिक न्याय' शब्द को कठोर प्रतियोगिता के विरुद्ध कमजोर, वृद्धों, दीन-हीनों, महिलाओं, बच्चों और अन्य सुविधा वंचितों को राज्य द्वारा संरक्षण के अधिकार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि यह सिद्धांत एक विषमतामूलक समाज के 'सर्वसमावेशी समाज' के रूप में परिवर्तन में एक मार्गदर्शक का कार्य करता है।


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