राज्य सभा के संगठन, अधिकार और कार्यों का वर्णन करें।
Ans. भारतीय संघीय व्यवस्थापिका संसद कहलाती है और यह ब्रिटिश संसद की भाँति सदनात्मक है। इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार कॉमन सभा और लार्ड सभा को मिलाकर ब्रिटिश संसद का निर्माण हुआ है, उसी प्रकार भारतीय संसद के भी दो सदन हैं-प्रथम अथवा निम्न सदन, जिसे लोकसभा कहा जाता है और द्वितीय अथवा उच्च सदन जिसे राज्यसभा कहा जाता है।
राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद-80 के द्वारा 250 निश्चित की गयी है। इनमें से 238 सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा होना ठहराया गया है और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति ऐसे लोगों में से मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज-सेवा में विशिष्टता प्राप्त हो। वर्तमान समय में राज्यसभा में 244 सदस्य हैं जिनमें से 232 सदस्य राज्य एवं केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्यों का मनोनयन राष्ट्रपति द्वारा किया गया है। 3भारत की राज्यसभा का सभापतित्व भारत का उपराष्ट्रपति करता है। इसके अतिरिक्त राज्यसभा अपने सदस्यों में से बहुमत के आधार पर एक उपसभापति भी चुनती है। राज्यसभा उपराष्ट्रपति को लोकसभा की सहमति प्राप्त कर अपने एक प्रस्ताव से हटा भी सकती है। साधारण काल में उपराष्ट्रपति तथा उपसभापति पाँच वर्ष तक अपने पद पर बने रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि चूँकि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सदस्य नहीं होता, अतः वह मतदान नहीं कर सकता। __तथापि राज्यसभा को नियमित रूप से कुछ कार्य एवं अधिकार प्राप्त हैं और संविधान के अनुच्छेद 127 में यह स्वीकार किया गया है कि कोई भी विधेयक तभी अधिनियम बन सकता है जब वह संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित हो जाए।
भारत में विधि-निर्माण के क्षेत्र में कोई भी साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है और प्रत्येक विधेयक को अधिनियम बनाने के लिए दोनों सदनों की स्वीकृति | आवश्यक है, परन्तु यदि किसी विधेयक के सम्बन्ध में दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाय तो
संविधान द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने की व्यवस्था की गयी है। गतिरोध की स्थिति में यदि राज्यसभा किसी विधेयक पर छह माह से अधिक का विलम्ब लगा देता है, तो उसके समाधान के लिए दोनों सदस्यों की संयुक्त बैठक बुलाये जाने की व्यवस्था की गयी है। संयुक्त बैठक में
दोनों सदन बहमत द्वारा उक्त विधेयक को पारित कर सकते हैं, संशोधित कर सकते कर सकते हैं चकि संख्या की दृष्टि से लोकसभा अधिक शक्तिशाली होती है अतः में लोकसभा के इच्छानुसार ही कार्य होने की संभावना अधिक रहती है।
इस प्रकार साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में राज्यसभा को अधिक-से-अधिक विलम्ब करने का अधिकार है। यदि इसकी तुलना ब्रिटिश लॉर्ड सभा से की जाय तो कि लॉर्ड सभा साधारण विधेयक पर एक वर्ष का विलम्ब कर सकती है। इस प्रकार हो जाता है कि राज्यसभा या लॉर्ड सभा किसी विधेयक को सदा के लिए समाप्त नहीं
जहाँ तक वित्तीय क्षेत्र का सम्बन्ध है, राज्यसभा की शक्तियाँ और भी कम हैं। जिन बिरेन की कॉमन सभा की भाँति केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं और का निर्णय कि उक्त विधेयक वित्तीय है अथवा नहीं, लोकसभा का अध्यक्ष ही करता ही से पारित होने के पश्चात् वित्त विधेयक राज्यसभा के विचारार्थ उसके समक्ष विन-विधेयक को स्वीकार करने अथवा संशोधित करने का अधिकार राज्यसभा को उसे मात्र 14 दिनों के भीतर विधेयक को स्वीकार करके अथवा अपने सुझावों के पास पड़ता है। राज्यसभा के सुझाव को मानने के लिए लोकसभा बाध्य नहीं है। दसरी और दिनों के भीतर विधेयक को स्वीकार करके अथवा अपने सुझावों के साथ लौटा देना पड़ता को सझाव को मानने के लिए लोकसभा बाध्य नही है। दूसरी ओर यदि 14 दिनों के भीतर वित्त विधेयक को नहीं लौटाती है, तो वह विधेयक उसी रूप में दोनों सदनों द्वारा पति जाएगा जिस रूप में यह लोकसभा द्वारा पारित किया गया है।
__अतः स्पष्ट है कि वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में राज्यसभा को मात्र 14 दिनों का निषेधार प्राप्त है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटिन की लॉर्ड सभा वित्त विधेयक को मात्र 30 दिन विलम्ब कर सकती है।
संसदीय प्रणाली में जहाँ तक कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद्) पर नियंत्रण रखने का सम्मान यह कार्य संसद का ही है, परन्तु व्यवहार में भारत या ब्रिटेन की संसदीय प्रणालियों में ये अधिक संसद के लोकप्रिय सदन को ही प्राप्त है। अत: जिस प्रकार ब्रिटेन में मंत्रिमंडल केवल कॉमन समा के प्रति उत्तरदायी है, उसी प्रकार भारत में मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व लोकसभा के पति ही है। जहाँ तक राज्यसभा का सम्बन्ध है इसके सदस्य मंत्रियों से प्रश्न अथवा पूरक प्रश्न या मंत्रियों के विरुद्ध काम रोको प्रस्ताव ला सकते हैं तथा उसकी आलोचना भी कर सकते हैं, परन्त सरकार को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा पदच्युत करने की शक्ति केवल लोकसभा को ही है और राज्यसभा इस अधिकार से पूर्णतया वंचित है।
उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्यसभा संसद का एक निर्बल सदन है. परन्तु ऐसे कुछ सांविधानिक मामले हैं, जिनके सम्बन्ध में राज्यसभा को लोकसभा के समान ही शक्तियाँ प्राप्त हैं।
जहाँ तक संविधान में संशोधन करने का सम्बन्ध है, इस कार्य में संसद के दोनों सदन समान रूप से भाग लेते हैं। कोई भी संशोधन विधेयक राज्यसभा में ही पुनः स्थापित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कोई भी संशोधन तभी हो सकता है जब प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित एवं मत देनेवाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित हो जाय। संशोधन सम्बन्धी अपने अधिकार का उपयोग करते हुए राज्यसभा ने अनेक अवसर पर अपने महत्त्व को प्रकाश में लाया है। उदाहरणार्थ, 1970 का प्रतिवर्ष उन्मूलन विधेयक राज्यसभा में एक मत द्वारा पराजित हो जाने के कारण पारित न हो सका। हाल में 45वें संशोधन विधेयक के सम्बन्ध में राज्यसभा न अपनी शक्ति का प्रयोग कर लोकसभा द्वारा अनुमोदित 5 धाराओं को रद्द घोषित कर दिया।
इसी प्रकार राज्यसभा राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा उसकी पदच्युति के संबंध में लोकसभा के समान ही अधिकारों का प्रयोग करता है। राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए जिस निर्वाचन मंडल का गठन किया जाता है, उसमें राज्य की विधानसभाओं तथा संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य होते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण राष्ट्रपति के पदच्युत करने से सम्बन्धित अधिकार है। राष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है। इसके दो-तिहाई सदस्यों द्वारा स्वीकृत कर लिये जाने के बाद उसे लोकसभा में भेजा जा सकता है, जो न्यायपालिका के रूप में आरोपों की जाँच करता है और यदि अपने 2/3 मतों से आरोपों को सवीकार कर लेता है, तो राष्ट्रपति को पद-त्याग करना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को अपदस्थ करने का अधिकार संसद के दोनों सदनों को समान रूप से प्राप्त है।
राज्यसभा को यह भी अधिकार है कि यदि लोकसभा के भंग होने की स्थिति में आपात स्थिति की घोषणा की गयी है, तो उसका अनुमोदन वह दो महीने के भीतर कर दे।
अतएव सरांश के रूप में यह कहा जा सकता है। वैसे तो राज्यसभा शक्ति प्रयोग के सम्बन्ध में कोई विशेष भूमिका नहीं निभाती तथापि द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के अन्तर्गत इसने भारतीय शासन-व्यवस्था में सफलतापूर्वक कार्य किया है और आज भी इसका महत्त्व है और इसकी प्रभावशीलता अनेक अवसरों पर प्रदर्शित भी होती रही है।
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