1975 के आपातकालीन घोषणा और क्रियान्वयन के देश के राजनैतिक, माहौल, प्रेस, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका के निर्णयों और संविधान पर क्या प्रभाव पड़े अथवा उनके इन क्षेत्रों में क्या परिणाम हए?

 1975 के आपातकालीन घोषणा और क्रियान्वयन के देश के राजनैतिक, माहौल, प्रेस, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका के निर्णयों और संविधान पर क्या प्रभाव पड़े अथवा उनके इन क्षेत्रों में क्या परिणाम हए?

Ans.(D राजनैतिक फिजा (माहौल/वातावरण) पर प्रभाव-इंदिरा सरकार के इस फैसले से विरोध आंदोलन एक बारगी रुक गया। हडतालों पर रोक लगा दी गई। अनेक विपक्षा नेताओं को जेल में डाल दिया गया। राजनीतिक माहौल में तनाव भरा एक गहरा सन्नाटा छा गया।

(ii) प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रभाव- आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाच गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी जरूरी है। इसे प्रेस सैंसरशिप जाता है।

(iii) आर एम एस एवं जमात-ए-इस्लामी पर प्रभाव-सामाजिक और गडबडी की आशंका के मद्देनजर सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जा पर प्रतिबंध लगा दिया। धरना, प्रदर्शन और हड़ताल की भी अनुमति नहीं थी। दो हजारों निष्ठावान सक्रिय कार्यकर्ताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया गया।

मौलिक अधिकारों पर प्रभाव- सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकाली के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पार अधिकार भी नहीं रहा कि भौतिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंदर गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई सकते हैं।

(v) संवैधानिक उपचारों का अधिकार एवं न्यायालय द्वारा सरकार विरोधी घोष सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बडे र गिरफ्तारियाँ की। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। वे बंदी पर याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोग उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दाया लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई जर है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजद अदालत व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायासंवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मानसी इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में एक माना गया।

(vi) राजनीतिक कार्यकर्ताओं, कुछ समाचार-पत्र पत्रिकाओं तथा अत्यधिक सम्मानित लेखकों पर प्रभाव एवं उनके निर्णय- (क) आपातकाल की मुखलाफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटीं। पहली लहर में जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच गए थे वे भूमिगत' हो गए और सरकार के खिलाफ मुहिम चलायी।

(ख) 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'स्टेट्समैन' जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह वे अखबार खाली छोड़ देते थे। 'सेमिनार' और 'मेनस्ट्रीम' जैसी पत्रिकाओं में सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूजलेटर और लीफलेट्स निकले।

(ग) पद्मभूषण से सम्मानित कन्नड़ लेखक शिवराम कारंट और पद्मश्री से सम्मानित हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने लोकतंत्र के दमन के विरोध में अपनी-अपनी पदवी लौटा दी। बहरहाल मुख्यालय और प्रतिरोध के इतने प्रकट कदम कुछ ही लोगों ने उठाए।

(vi) संसद के समक्ष चुनौतियाँ संविधान में 42वाँ संशोधन एवं उसके प्रभावशाली पभाव-(क) संसद ने संविधान के सामने कई नई चुनौतियाँ खड़ी की। इंदिरा गाँधी के मामले में दलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चनौती नहीं दी जा सकती। आपातकाल के दौरान ही संविधान के 42वाँ संशोधन पारित हआ।

(ख) 42वें संशोधन के जरिए संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन के जरिए हुए अनेक बदलावों में एक था-देश की विधायिका के कार्यकाल कोसे बढ़ाकर 6 साल कर दिया गया था।


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