ऊर्जा की बढ़ती मांग आपूर्ति कैसे की जा सकती है समझाएं,How supply of energy can be done for growing energy demand

 

ऊर्जा की बढ़ती मांग आपूर्ति कैसे की जा सकती है समझाएं,How supply of energy can be done for growing energy demand 

ऊर्जा हमारे जीवन की प्रमुख आवश्यकता हैचाहे वह किसी भी रूप में हो। भोजनप्रकाशयातायातआवासस्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ मनोरंजनदूरसंचारपर्यटन जैसी आवश्यकताओं में भी ऊर्जा के विभिन्न रूपों ने हमारी जीवन शैली में प्रमुख स्थान बना लिया है। ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति यह सोचे कि पहले भोजन की समुचित व्यवस्था करूं या कलर मोबाइल खरीद लूं। बिना एयरकंडीशनर के किसी अधिकारी के लिए कार्यालय की कल्पना करना कठिन है।
   जीवन शैली का बदलाव हम इस रूप में भी देख सकते हैं कि जो काम दिन के उजाले में सरलता से हो सकते हैं उन्हें हम देर रात तक अतिरिक्त प्रकाश व्यवस्था करके करते हैं। नियमित व संतुलित दिनचर्या छोड़कर हम ऐसा जीवन जीने के आदी होते जा रहे हैं जो हमें अस्पतालएक्सरेईसीजीआईसीयू के माध्यम से भयंकर खर्चो में उलझा रहा है। हमारी दिनचर्या दिन प्रतिदिन अधिकाधिक ऊर्जा की मांग करती जा रही है।
ऊर्जा की बढ़ती मांग के हिसाब से उत्पादन भी बढ़ते ही जा रहा है। जहां सन् 2000-01 में भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 374 किलोवाट प्रतिवर्ष थी वहीं वर्तमान में 602 किलोवाट हो गयी है। हमारे योजनाकार वर्ष 2012 तक प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 1000 किलोवाट का अनुमान लगा रहे हैं तथा इस हिसाब से ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने वाली परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष लगभग 10000 किलोवाट ऊर्जा खपत है। विकास का जो माडल हम अपनाते जा रहे हैं उस दृष्टि से अगली प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में हमें ऊर्जा उत्पादन को लगभग गुना करते जाना होगा।
   हर देश या राष्ट्र की अपनी भौगोलिकसांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है। उसकी अपनी एक तासीर होती है। इस हिसाब से उसके नागरिकों का जीने-खाने का तरीका व कार्य व्यवहार निर्धारित होता है और इसी क्रम में उस समुदाय की ऊर्जा आवश्यकताएं निर्धारित होती हैं। वैश्वीकरण के दौर में जीने की शैली में निरंतर बदलाव आ रहे हैं। ये बदलाव भी इस प्रकार के हैं कि हमारी ऊर्जा खपत बढ़ती जा रही है। इस प्रकार ऊर्जा की मांग व पूर्ति में जो अंतर है वह कभी भी कम होगा ऐसा सोचा ही नहीं जा सकता है।
   हम सभी जानते हैं कि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह सीमाओं में बंधी है। पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन निश्चित हैं। आज प्रकृति में विद्यमान पदार्थावस्था (मिट्टीपत्थरपानीखनिजधातु) को साधन में बदलकर उससे विकसित होने का सपना दिखाया जा रहा हैजिससे अंधाधुंध ऊर्जा खपत बढ़ रही है। इस विकास’ में इस बात की अनदेखी हो रही है कि प्रकृति में पदार्थ की मात्रा निश्चित हैबढ़ाई नहीं जा सकती। फिर भी पदार्थ का रूप बदलकरसाधनों में परिवर्तन करकेखपत बढ़ाकर विकास का रंगीन सपना देखा जा रहा है। इस विकास के चलते संसाधनों का संकटप्रदूषणग्लोबल वार्मिंगपानी की कमी आदि मुश्किलें सिर पर मंडरा रही हैं।
   आज आर्थिक विकास व दैनंदिन जरूरतों के लिए ऊर्जा की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता। योजना आयोग ने 2006 में समग्र ऊर्जा नीति’ प्रकाशित की। इस नीति में कोयले से उत्पन्न ऊर्जा (थर्मल पावर) को सबसे खराब बताया गया क्योंकि इस प्रक्रिया में जहरीली गैसेंराख व गंदा पानी निकलता है। जंगल व वनस्पति की हानि भी साथ में होती ही हैखनन से विस्थापन भी होता है। परमाणु ऊर्जा को इसकी तुलना में अच्छा बताया गया क्योंकि इसमें जहरीली गैसों का उत्सर्जन नहीं होता। दूसरी ओर जल विद्युत को श्रेष्ठतम बताया गया क्योंकि इस प्रक्रिया से किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता।
   तेल की बढ़ती कीमतों सेपरमाणु ऊर्जा व जल-विद्युत के प्रति आकर्षण और बढ़ गया है। हमें ऊर्जा का अधिक उत्पादन क्यों करना चाहिएउत्तर होगा कि हमें आर्थिक विकास करना है और जीवन को अधिक आरामदायक तरीके से जीना है। अधिक ऊर्जा से जीवन आरामदायक होगा यह तो ठीक है। लेकिन एक तथ्य चौंकाने वाला है- आर्थिक विकास से ऊर्जा की खपत बढ़ती है लेकिन अधिक ऊर्जा की खपत से आर्थिक विकास हुआयह नहीं कहा जा सकता (सजल घोषआईजीआईडीआरमुम्बई)। हम सभी को यह लग सकता है कि उद्योग-धंधों में मेन्यूफैक्चरिंग के लिए अधिक ऊर्जा चाहिए। लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का हमारे आर्थिक विकास में कितना योगदान हैवस्तुत: देश की आय में मेन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की बजाए सेवा क्षेत्र  का योगदान अधिक है।
   हमारे नीतिकारऊर्जा संकट से निपटने हेतु जिस प्रकार का चिंतन करते हैं उसका एक नमूना प्रस्तुत है। देश के वित्तमंत्री ने कुछ माह पूर्व अपने एक साक्षात्कार में कहा किउनकी नजर में आने वाले समय में जनता को पानीबिजलीशिक्षाआवास जैसी सुविधाएं मुहैया कराने के लिए बेहतर होगा कि हमारी 85 प्रतिशत जनसंख्या शहरो में रहे। वे उपरोक्त सभी आवश्यकताओं की पूर्ति को शहरीकरण के रूप में देखते हैं। संभव है मंत्री साहब और उनकी सोच से सहमति जताते बुद्धिजीवियों को हमारे देश की तासीर का पता नहीं है। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि हमारे रणनीतिकार बुद्धिजीवी हो सकते हैंविवेकवान नहीं। बुद्धिजीवी का चिंतन लाभसुख-सुविधाशार्टकटशोषण के आस-पास ही घूमेगा व विवेकवान का चिंतन प्रकृतिपर्यावरण संरक्षणभावी पीढ़ी की बेहतरी और दूरदर्शिता पूर्ण होगा।
   देश के आर्थिक विकास के लिए हमारी सरकारें विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज)विकसित करने हेतु कटिबध्द हैं। एक सेज के लिए कम से कम 1000 हेक्टेयर भूमि चाहिए। अत: सरकारें लगातार कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण में जुटी है। सेज विकसित करने के लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियों को कारखानों की इमारतें खड़ी करनेदूरसंचार व ऊर्जा आपूर्ति के लिए विशेष रियायतें दी जा रही हैं। यदि हम इस तथ्य में विश्वास करते हैं कि मेन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का देश के आर्थिक विकास में योगदान कम है और वह लगातार कम होता जा रहा है तो फिर नए-नए सेज खड़े करके नई ऊर्जा आवश्यकताओं का बोझ हम क्यों तैयार कर रहे हैंऊर्जा का नया बोझ बढ़ेगा तो मजबूरन नए-नए पावर प्रोजेक्ट लगेंगे जो एकमुश्त एक जगह पर हजारो मेगावाट ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य रखेंगे।
   इसके लिए परमाणु समझौते होंगेबड़े-बड़े झीलनुमा बांध बनेंगे। इस प्रक्रिया में हम सिर्फ देश के लिए ऊर्जा उत्पादन ही करते रह जाएंचाहे पर्यावरण की बलि ही क्यों न देना पड़े। हमारी सरकारें चुनावों के पहले या सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के लिए सस्ती से सस्ती बिजली पैदा करने या पुरानी वसूली को छोड़ने आदि की घोषणाएं करने में तत्पर रहती हैं। एक तरफ हमने मांग की पूर्ति हेतु अधिक ऊर्जा उत्पादन के लिए बेतहाशा कार्बन उर्त्सजन किया वहीं दूसरी ओर बिजली को मुफ्त में बांट दिया। इस चिंतन के चलते देश की ऊर्जा स्वायत्तता कभी पूरा न होने वाला स्वप्न मात्र ही रहेगा। आज बिजली बनाना ही ऊर्जा उत्पादन का पर्याय हो गया है।
   वर्तमान ऊर्जा स्थिति देखने से पता चलता है कि थर्मल पावर कुल ऊर्जा उत्पादन में 64.6 प्रतिशत योग देता हैजल विद्युत 24.6 प्रतिशतपरमाणु ऊर्जा 2.9 प्रतिशत और पवन ऊर्जा का एक प्रतिशत योगदान रहता है।  देश में उत्पादित कुल ऊर्जा की मात्रा का लगभग 23 प्रतिशत वितरण में ही नष्ट हो जाता है। हांलाकि वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है। उत्पादित ऊर्जा का औसत टैरिफ मूल्य 2.12 प्रति किलोवाट है। भारत की केन्द्र सरकार सन् 2012 तक प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1000 किलोवाट ऊर्जा खपत के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रतिवर्ष ऊर्जा विकास से संबंधित बजट में वृद्धि कर रही है। इस हेतु जहां सत्र 2006-07 में 650 करोड़ रुपये आवंटित किए थेवहीं सत्र 2007-08 में इसे बढ़ाकर 800 करोड़ कर दिया गया है। सरकार अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए प्रतिबद्ध है और इस कारण 20000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इससे 4000 मेगावाट अतिरिक्त ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।
   भारत अमेरिका के साथ परमाणु समझौता कर चुका है। न्यूक्लियर ऊर्जा को गैर कार्बन उत्सर्जक मानते हुए हम आगे बढ़ रहे है। हमें स्मरण रखना होगा कि न्यूक्लियर ऊर्जा उत्पादन हेतु गुणवत्ता युक्त कच्चे माल की उपलब्धता पर हम हमेशा ही परावलम्बी रहेंगे। वर्तमान में भारत में 14 रियेक्टरों के माध्यम से 2550 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है तथा अन्य रियेक्टर निर्माणाधीन हैं। इन निर्माणाधीन रियेक्टरों के द्वारा अतिरिक्त 4092 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन होगा।
   लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि न्यूक्लियर पावर प्लाण्ट से रेडियोधर्मिता युक्त अपशिष्टों को ठिकाने लगाना भी भारत के लिए आगे निरन्तर एक जटिल प्रश्न बना ही रहेगा। भारत की तकनीकी विशेषज्ञता पर भरोसा भी किया जाएफिर भी चेर्नोबिल की पुनरावृत्ति भारत में नहीं होगीयह कहना मुश्किल है।
   भारत में जल विद्युत का उत्पादन कुल ऊर्जा उत्पादन का लगभग 25 प्रतिशत है। देश के उत्तर व उत्तर पूर्वी राज्यों (जम्मू-कश्मीरहिमाचल प्रदेशउत्तराखंडपश्चिम बंगालसिक्किम और अरुणाचल प्रदेश) में जल विद्युत परियोजनाओं की हलचल काफी तेज है। दो दशक पूर्व मात्र कुछ ही जल विद्युत परियोजनाएं थीं। आज तो पहाड़ों से निकलने वाली हर छोटी-बड़ी नदी के प्रवाह से ऊर्जा उत्पादन की योजनाएं उफान पर हैं। अब 300 से 500 मेगावाट तक के ऊर्जा उत्पादन हेतु उपयुक्त स्थल चयन कर केन्द्र व राज्य सरकारें फटाफट ईआईए करवा रही हैं। दर्जनों परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं और कई प्रस्तावित हैं। समाज में भी जल विद्युत के प्रति सहानुभूति है क्योंकि यह प्रचारित हो रहा है कि इसमें कार्बन उत्सर्जन की कोई समस्या नहीं है। 2007-08 में 14811.35 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन और 1002 करोड़ का लाभ अर्जित करके सरकारी उपक्रम एनएचपीसी अन्य ऊर्जा उत्पादन के उपक्रमों में सबसे आगे नजर आ रहा है। गौरतलब है कि जल विद्युत का औसत बिक्री मूल्य 1.73 रुपए प्रति यूनिट है।
   पार्वती व सुबानसिरी जैसी जल विद्युत परियोजनाएं सभी का ध्यान आकर्षित करती हैं। 500 मेगावाट तक उत्पादन करने वाली ईकाइयों को लेकर भी हमारे समाज में प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही है। उत्तराखण्ड में तो जल बिजली उत्पादन हेतु 150 से अधिक स्थल चिहि्नत कर लिए गये हैं और दर्जनों पर काम शुरू हो गया है। एक ही नदी को 100-150 किलोमीटर के अन्दर बार-बार बांधा जाता हैसुरंगों से निकाला  जाता है। नदी के नैसर्गिक प्रवाह के साथ बार-बार छेड़-छाड़ की जाती है। इसके पीछे एक मात्र मानसिकता है जल विद्युत का व्यापार।
   हमें नहीं भूलना चाहिए कि जल विद्युत परियोजना में कई नकारात्मक बातें समाईं हुईं हैं। पहली बात तो यह कि पहाड़ों से निकलने वाली नदियों के द्वारा बड़े पैमाने पर निकलने वाली तलछट  आगे मैदानी इलाकों के लिए वरदान होती है। हरिद्वार से गंगा सागर तक की सम्पूर्ण गंगा घाटी इसी तलछट के जमने से ही बनी है। इस तलछट से नदी के किनारे की बहुमूल्य मिट्टी का क्षरण होने से बचता है। समुद्र से होने वाले भूक्षरण से रक्षा होती है। प्रतिवर्ष मात्र गंगा नदी द्वारा 794 मिलियन टन तलछट ले जाई जाती है। टिहरी व अन्य बांधों के कारण कम से कम 30 प्रतिशत तलछट अब बांधों में ही जमा होने लगी है। इसके चलते गंगा के किनारे बसने वाली बड़ी आबादी का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। पड़ोसी बांग्लादेश के साथ भी हमारे राजनैतिक संबंध बिगड़ेंगे।
   ऊर्जा उत्पादन के जिस भी माध्यम से यदि कार्बन उत्सर्जन होता है तो यह प्रदूषण पर्यावरण व ग्लोबल वार्मिग के लिए जिम्मेदार होता है। थर्मल पावर प्लांट्स इस दृष्टि से बदनाम भी हैं। दिलचस्प बात यह है कि जल विद्युत के माध्यम से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन थर्मल पावर प्लाण्ट्स की तुलना में ज्यादा है। एक यूनिट बिजली बनाने हेतु जहां थर्मल प्लाण्ट्स से 800 ग्राम कार्बन उत्सर्जन होता है वहीं जल विद्युत के लिए बने बड़े-बड़े बांधों के कारण 2145 ग्राम का कार्बन उत्सर्जन होता है। कनाडाब्राजीलघाना जैसे कई देशों ने अपने अनुभवों को विश्व समुदाय के सामने रखा है। देर-सवेर हमारे अनुभव भी ऐसे ही होंगे। यह लगभग सीधी बात है क्योंकि हमारी जलवायु ट्रोपिकल  है। ऐसे देशों में बड़े बांधों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन अधिक होता है।
   बांधों के कारण बड़े क्षेत्र डूब में आएंगेजंगल नष्ट होंगेभूकम्प की संभावना बढेग़ीभूस्खलन होगाजैव विविधता का नाशजल की गुणवत्ता में कमी आदि जो होगा उसकी क्षति पूर्ति असंभव होगी।
   ऐसे पुख्ता सबूत हैं कि जल विद्युत परियोजनाओं के लिए जो भी प्रक्रियागत ईआईए (इनवायरमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट- पर्यावरणीय प्रभाव की जांच) किया जाता है वह जल्दबाजी में खानापूर्ति मात्र होती है। इसके चलते परियोजना से जुड़े दीर्घकालिक लाभ व हानि का समग्रता में आकलन नहीं हो पाता।
   पवन ऊर्जा को प्रदूषण रहित ऊर्जा स्रोत मानना न्याय संगत है। 45000 मेगावाट की संभावना वाले इस क्षेत्र में ऊर्जा का उत्पादन मात्र 1267 मेगावाट है जिसमें से 1210 मेगावाट का उत्पादन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा किया जा रहा है। ये प्रतिष्ठान अपनी आवश्यकता से ज्यादा उत्पादन करते हैं। उनके द्वारा उत्पादित अतिरिक्त ऊर्जा को वे नेशनल ग्रिड को बेचना भी चाहें तो उन्हें पर्याप्त हतोत्साहित होना पड़ता है। देश के 13 राज्यों में 192 ऐसे स्थल हैं जहां पवन ऊर्जा उत्पादन की अच्छी संभावनाएं हैं। इन राज्यों में प्रमुख रूप से तमिलनाऊगुजरात आन्ध्रप्रदेशकर्नाटककेरलमध्यप्रदेशमहाराष्ट्र हैं। आज 55 से 750 मेगावाट क्षमता के विंड इलेक्ट्रिक जनरेटर उपलब्ध हैं लेकिन सरकार का ध्यान इस ओर उतना नहीं है जितना कि थर्मलन्यूक्लियर व जल विद्युत की बड़ी परियाजनाओं पर है।
   सौर ऊर्जापवन ऊर्जा की भांति ही अक्षय ऊर्जा का बेहतरीन स्रोत है लेकिन वर्तमान में सौर ऊर्जा का उत्पादन मात्र 62 मेगावाट के आस-पास ही हो रहा है। देश में वर्ष के औसतन 300 दिन प्रचुर सौर ऊर्जा उपलब्ध है। 5000 ट्रीलियन प्रति घंटा ऊर्जा उत्पादन की संभावना इस क्षेत्र में है जो कि पूरे देश की ऊर्जा आवश्यकता से कहीं ज्यादा है। देश में 70000 पीवी सिस्टम, 500 सोलर वाटर पम्पिंग सिस्टम, 509894 सोलर लालटेन, 256673 होम लाइटिंग सिस्टम व 478967 स्ट्रीट लाइट्स के माध्यम से सौर ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है। सोलर वाटर हीटरसौर ऊर्जा के उपयोग का सबसे प्रचलित जरिया बना हुआ है जिसमें कि 475000 वर्गमीटर क्षेत्रफल पर सोलर वाटर हीटर लगाने की संभावना है। सोलर पैनल की कीमत  कम करने के लिए तकनीक विकसित करना  हमारी प्राथमिकता होना चाहिए।
   बायोमास से ऊर्जा उत्पादन की दृष्टि से भारत विश्व में चौथे स्थान पर है और इस क्षेत्र में विश्व समुदाय का नेतृत्व करने की पूरी योग्यता इस देश में है। कमी है तो सिर्फ हमारे रणनीतिकारों के सोच की जो कि 85 प्रतिशत आबादी को शहरों में बसाने के चिंतन से ओत-प्रोत हैं। भारत में बायोमास से ऊर्जा उत्पादन की संभावना 16000 मेगावाट की है जिसमें कि सामुदायिक बायोमास आधारित संयंत्रों से ऊर्जा उत्पादन शामिल नहीं है। वर्तमान में 630 मेगावाट  उत्पादन की परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। एक मेगावाट  क्षमता का बायोमास संयंत्र जो यदि वर्ष में 5000 घंटे चले तो उसे 6000 टन बायोमास की जरूरत होगी।

   एक मेगावाट क्षमता के बायोमास आधारित बिजली उत्पादन हेतु 3.5 से करोड़ रुपए तथा एक मेगावाट क्षमता के बायोमास आधारित गैसीफायर हेतु 2.5 से करोड़ की लागत लगती है। बायोगैस से 300 किलोवाट ऊर्जा उत्पादन हेतु 100 मिट्रिक टन गोबर की आवश्यकता होती है। बायोडीजल भी भारत में नई संभावना के रूप में सामने आया है। बेकार पड़ी 13.4 मिलियन हेक्टेयर भूमि में रतन जोत (जेट्रोफा) का रोपण किया जा सकता है। यदि देश में 13.4 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर रतन जोत लगाया जाए तो हमें 22 प्रतिशत पेट्रोलियम ईंधन की बचत होगी। इसी प्रकार बायो इथेनाल के माध्यम से भी कम से कम इतने ही पेट्रोलियम ईंधन की बचत की जा सकती है।
   उपरोक्त विश्लेषण के बाद हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि हमें ऐसी किसी भी ऊर्जा से बचना होगा जो कि विनाशकारी है। मानव-जीवन व प्रकृति दोनों की रक्षा करना हमारा पहला धर्म है। हम अपनी भावी पीढ़ी को सुखी देखना चाहते हैं। यदि मानवता और पृथ्वी सलामत रहीतभी वर्तमान व भविष्य के ताने-बाने का कोई मतलब है। हम अपनी आवश्यक ऊर्जा जरूरतों को परमाणु कोयला या बड़े-बड़े बांधों के द्वारा एक मुश्त पूरी करने की बजाए छोटेप्रकृति पोषकटिकाऊ माध्यमों से ही प्राप्त करें अन्यथा 2050 तक पृथ्वी हमारे रहने लायक ही न बचेगी

No comments: